Thursday, February 8, 2018

स्मार्ट जनरेशन के स्मार्ट मित्र

'दोस्ती ''खुदा  का दिया हुआ एक नायाब  तोहफ़ा है जो रक्त बंधन ,और सूत्र बंधन से मुक्त होकर भी शक्तिशाली बंधन है। कहा जाता है कि दोस्ती उम्र ,जाति ,लिंगभेद ,और धर्म से परे  होती है। विद्वानों  ने कहा है की विचारो का मिलना ही दोस्ती की पहली शर्त है।  प्रेमचंद के प्रिय पात्र अलग चौधरी और जुम्मन मियॉँ की दोस्ती की आज भी दूसरी मिसाल नही मिलती ,इसी तरह श्रीकृष्ण और सुदामा भी   सदियों से आदर्श  मित्र है। आज हम सब फ़ास्ट लाइफस्टाइल के आदी  हो गए है।  व्यस्ततम जीवनशैली ,ने रिश्तो की ऊष्मा को कम  कर दिया है। और लोगो के बीच रिक्तता सी आ गयी है। 

आज के इस  मशीनी युग ने अपनी सिद्धता साबित करते हुए छोटे बड़े मशीनो के ''टच 'से  रिश्ते जोड़ने का प्रभावी काम शुरू किया है। इसमें सोशल  नेटवर्किंग सिस्टम सबसे ज्यादा मददगार साबित हुआ है। आज हर कोई इसमे  व्यस्त नज़र आता है. ,मशरूफ़ियत  का यह आलम है कि बेटा तीज त्योहारो में  अपने माँ बाप को चरण छू कर नहीं बल्कि व्हॉट्अप से विश  करना ज्यादा पसंद करता है। कम समय में ज्यादा काम करने की होड़ मची है। सोशल कॉन्टेक्ट्स की कमी , एकल छोटे परिवार ,बच्चो का पढाई ,नौकरी के लिए बाहर जाना जैसे कारणों से इन्सान एक दूसरे से काट गया है. ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक माध्यमो द्वारा  सोशल नेट वर्किंग ने कुछ बेशकीमती तोहफे दिए है। जिनमे ,फेसबुक ,ट्वीटर ,व्हाट्अप ,इंस्टाग्राम ,वाइबर  आज स्मार्ट जनरेशन की शान बन गया है.या यू  कहिये यही आज के ज़माने के सर्वोत्तम दोस्त है। ।

आज आप अपनी मर्जी से अपनी पसंद अपनी रुचि के मित्र चुनने की आजादी रखते है  जिनके विचार आप से  में मिलते हो ,उन्हें आप सहर्ष दोस्ती का निमंत्रण दे सकते है. उनसे चैटिंग  कर ,उनसे बातचीत कर ,अपने फोटोज  ,वीडिओज़ शेयर कर उन्हें अपना आत्मीय बना सकते है. एक परिचित अपने रिटायरमेंट के बात बहुत बोरियत महसूस कर रहे थे।  उनकी पत्नी ने उन्हें स्मार्ट फोन गिफ्ट किया ,और बच्चो से फेसबुक , व्हाट्सअप, ट्वीटर ,ब्लॉगिंग की सारी  जानकारी ली, और उसे एक्टिवेट किया.,.... बस फिर क्या था ,आज वे ,अपनी रूचि अनुसार  धर्म ,ज्ञान अध्यात्म की एक पोस्ट रोज डालते है। कुछ ग्रुप्स से जुड़ कर अपने अनुभव मित्रो में बांटकर  वे खुश है... 

यूँ तो इस आभासी दुनिया लोगो की जीवन शैली बदल डाली है।  वर्चुअल दुनिया सच्चाई से पर होती है। पर जहा दिल मिल जाये ,भावनाये  एक हो  जाये ,वही कल्पनाओं का नया संसार बनाया जा सकता है। जाने अनजाने मित्र कब जान से भी प्यारे हो जाते है ,यह पता ही नहीं चलता। ,एक

मित्र को उसके बीमारबच्चे के लिए ,किडनी की जरुरत थी। एक मैसेज ने उन्हें सेकड़ो समाधान बता दिए और उस बच्चे कीजान  बच गयी।  शुभकामनाओं के आदान प्रदान से और ,दुःख  की गहरी संवेदनाओं से जुड़कर हम सबके  ख़ास बन जाते है.बेतार की इस  टेक्नॉलॉजी ने हम सब को एक मजबूत बंधन में बाँध दिया है.,जहा पराये भी अपने हो जाते है. आज विश्वबंधुत्व्  की कसौटी पर आभासी दुनिया ने सबका विश्वास  जीत लिया है।  रिश्तो में अपनेपन की ऊष्मा है।  खोखले होते खून के रिश्तो से बेहतर ये आभासी दुनिया के आभासी मित्र है। जो दूर होकर भी दिल के करीब है। ऐसे जीवंत  मित्रो को सादर नमन ,जिन्होंने बहुतो के जीवन के अधूरेपन को पूरा कर दिया।आज दोस्ती की  इस नयी शुरुआत का आज की वास्तविक दुनिया दिल से स्वागत कर रही है। 

प्रेषिका ;ई.अर्चना नायडू 

Friday, September 29, 2017

इसीलिए रावण कभी मरता नही

ढेर सारा उत्साह और उमंग लेकर दशहरा पर्व आता है ,साथ मे बुराई पर अच्छाई की विजय का जय उदघोष करता रहता है ।
कहा जाता है कि भगवान राम ने नवरात्रि की पूजन अर्चन के बाद दसवें दिन अहंकारी रावण का वध अपने तीसवें तीर से किया था ।जो रावण के नाभि में स्थित अमृत कुंड को नष्ट कर देता है।
यूँ देखा जाए ,तो हम सब के मन मे बुराइयों का रावण हमेशा विधमान रहता है,अहंकार,मदमोह,द्वेष ईर्ष्या, कपट,झूठ, मक्कारी ,और न जाने कितने दुर्गुणों की खान है ,हमारा यह मानव शरीर ।फिर भी हम मन कर रावण को मारने के बदले कागज के पुतले को जलाकर हर्षित हो जाते है ।दुर्गा माँ की पूजा भगवान राम में आस्था के साथ अगर हम एक या दो मन मे बसे बुराइयों के रावण को मारने का प्रण ले ,तो संभवतः अंत तक हम मोक्ष के द्वार तक जा ही सकते है ।
व्यसन का त्याग और इंद्रियों पर संयम हम दसदिनी मैच की तरह ही क्यों निभाते है ।नौ दिनी व्रत और उपवास का दसवें दिन अंत हो जाता है
रावण के मरने का उत्सव हम
बुराइयों को साथ लेकर मानते है हमारे धर्म और सत्कर्म पर मोह लालसा,लोभ हावी हो जाता है ।और हमारी दिनचर्या फिर से रावणी हो जाती है ।
कहा जाता है हमारे विचार ही हमारे चरित्र को सदृढ़ बनाते है ।फिर हम क्यों दुर्बल होकर अच्छे कर्मों की सूची को मिटा कर फिर से बुराई की पंक्ति में खड़े हो जाते है।
तो चलिए,क्यो न इस साल नए सिरे से मन मे बसे बुरी आदतों और बुरे कर्मो के एकाध रावण को मारने की एक अच्छी शुरुआत करें।
यूँ तो मन मे बसे रावण को मारना आसान नही होगा ,फिर भी आत्मनियंत्रण ,और आत्मविश्वास को साथ लेकर एक मजबूत कदम तो रखा जा ही सकता है।हम स्वयं ही अपना नियंत्रण परिस्थिति और लचीले व्यवहार को सौप कर हार मान लेते है ।
दशहरा आत्मशुद्धि और आत्मवलोकन का पर्व है अपनी बुराइयों को जीतने का त्योहार है ,केवल उपवास कर लेने ,साबूदाने की खिचड़ी की खिचड़ी खा लेने या माता से अभय दान मांग लेने या रावण के कागज़ के पुतले को जला देना ही विजयादशमी नही है ,बल्कि अपने कर्म पर ,अपने मन पर सच्चाई और सत्कर्मो की सत्ता स्थापित करना ही सही दशहरा है ।
ई.अर्चना नायडू
भोपाल  ।

Saturday, July 22, 2017

शुभम एक शुरुआत

''शुभम एक शुरुआत ''  

हम सब इस दुनिया में अपने अपने हिस्से के कर्म और शक्ति को लेकर आये है.  हम सब में अतुलनीय मानसिक शक्ति विद्यमान है .छोटी से छोटी हस्ती और बड़ी से बड़ी काया सब अपने कार्य अपना धर्म मान कर करते है .मगर इस अतुल्य शक्ति और प्रतिभा के सच्चे स्वरुप को जान नही पाते.और जो स्वयं को जान लेते है वे जीवन में बहुत कुछ पा लेते है ,और जो सारी उम्र स्वयं को खोजते ही रहते है ,अपने अन्दर छुपी प्रतिभा को बाहर नही निकाल पाते ,उनके लिए जीवन एक संघर्ष बन कर रह जाता है .वे हमेशा नैराश्य के अँधेरे में ही बैठे रहते है .वे हमेशा समय की कमी,शारीरिक परेशानियाँ, आर्थिक तंगी ,और अपने आलस्य को ही इन सबका जिम्मेवार बना देते है .
अपनी मानसिक कमजोरियों पर पर्दा डालना अकर्मण्यता की निशानी है .
इसीलिए अपनी खूबियों का मंथन कीजिये .ईश्वर हर प्राणी में एक हुनर देता ही है.फिर अपनी प्रतिभा को तराशिये ,अपनी उसी कलाकारी को बढ़ाने ,संवारने के लिए अपना सौ प्रतिशत दीजिये ,योजनाबद्ध तरीके से की गई तैयारी आपको सफलता के द्वार तक जरुर पहुचायेगी .
माना कि हम हर काम नहीं कर सकते ,मगर अपना पसंदीदा काम या शौक हमें हमेशा उर्जावान बनाता है .लक्ष्य बड़ा हो यह जरुरी नहीं है .मगर वो सार्थक हो ,सही हो और अपने आप को ख़ुशी दे यह जरुरी है .जब लक्ष्य निर्धारित हो जाये ,तब उस पर चलना आसान हो जाता है .साथ ही हमारी राह में छोटी बड़ी रूकावटे आना भी जरुरी है ,क्योकि यही हमारे आत्मविश्वास और दृढनिश्चय को परखता है .
सच्चे मन से ,सच्ची लगन से अटल -विश्वास से ,और अथाह परिश्रम से किया गया हर कार्य हमेशा परिणिति को प्राप्त होता है .अब बस ,अपनी सारी सोई हुई शक्तियों को पुन: जाग्रत कीजिये ,अपने मन को सदैव सोलहवें साल की उमंगो की तरह् जवां रखिये और देखिये ,आपका छोटा सा लक्ष्य कैसे उत्साहित होकर बड़े और असाध्य कार्य को भी प्राप्त करता है .
आपकी किसी भी कार्य की छोटी सी उपलब्धि आपकी प्रतिभा को नया आयाम देगी .शुभ कार्य किसी शुभ मुहूर्त का मोहताज़ नही होता ,क्योकि सारे शुभ दिन ईश्वर के ही बनाये हुए है .एक शुभ विचार ही शुभम की शुरुआत है .अब एक मिनिट की देरी किये बिना एक शुभ विचार को जन्म दीजिये ,और अपने मन की सारी शक्तियों को उर्जा देते  हुए एक ऐसा महत्वपूर्ण काम कर दीजिये ,जिसका इन्तजार सारी दुनिया कर रही है .!
--ई. अर्चना नायडू ,

Wednesday, September 28, 2016

क्षणिकायें

क्षणिकाएँ
1-
सारी उम्र तरसती रही 
मेरी चाहत
 दो बूँद प्रेम के लिए 
जब उठी मेरी अर्थी 
देकर कंधे का सहारा 
पिलाकर दो बूँद गंगाजल 
तुमने मुक्त कर दिया मुझे 
.........प्रेम से '! 


2-
'न मिलाओ,
 अपने गुरूर में इतना सुरूर ,
बस .. इतना जान लो 
मोहब्बत की सोहबतें 
हर मगरूर को 
जमीं पर उतारने का 
हुनर जानती है ''


3-
 ''प्रेम ,
न जाने तेरे ,
कितने है रूप, और 
न जाने ,कितने है नाम। 
कोई तुझे पाना चाहता है ,
कोई तुझे  चाँद की तरह निहारना ,
मेरे लिए तो तुम्हारा ,
मेरा  होना ही , 
प्रेम है ''........

ई .अर्चना  नायडू  

Sunday, September 25, 2016

सृजन-संवाहक   हिन्दी

'सृजन-संवाहक   'हिन्दी. ''
 किसी भी भाषा का अस्तित्व ,उसका माधुर्य ,सम्प्रेषण और रचित संसार से ही सिद्ध होता है। हर भाषा अपने आप में अद्वितीय है ,अनोखी है। भाषा की उन्नति और वैभव जनमानस द्वारा बोले जाने वाले संवादों से ही स्थापित होती है ,। इसी श्रेणी में राजभाषा हिंदी ,अपने विचारो और संवादों के सम्प्रेषण के कारण  ही लम्बे समय से सृजक संवाहक बनी हुई है इसी लिए हिंदी को राष्ट्र का गौरव कहा जाता है। 
               आज ,समय का प्रवाह तेजी से बदल कर परिवर्तन  चाह रहा है। मगर हमारी जड़े हमारे पैरों तले  है। क्योकि जड़ो को काट कर कोई भी उन्नति नहीं कर सकता ,इसीलिए जहा मातृभाषा हमारी मजबूत जड़े  है ,वही हिंदी की  सहोदरी भाषायें ,जन -जन  की संपर्क भाषा बन कर लोगो के बीच सेतु का काम कर रही है। आज वैश्विक भाषा के रूप में अंग्रेजी को व्यवहारिक भाषा का स्थान दिया जा रहा है। इसीलिए इसे भी विश्व भाषा के रूप में समझना जरुरी है। यहाँ इन सारी  भाषाओ में दबाव या मज़बूरी से मुक्त सामंजस्य स्थापित होना नितांत आवश्यक है। इन्हे तार्किक धारा  से पर ,सरल मन से सहज रूप में स्वीकार करना ही समझदारी होगी ,क्योकि ,जब जब हम हमारी  प्रांतीय ,प्रादेशिक भाषा को सम्मान देंगे ,तब तब हम स्वयं सम्मानित होंगे। 
         परिवर्तन की इस बयार से हिंदी साहित्य भी अछूता नहीं रहा। आज अभिव्यक्तियों के नए मापदंड स्थापित किए जा रहे है। साथ ही हिंदी भाषा भी पहले से ज्यादा उन्मुक्त ,और परिमार्जित हो गई है। हिंदी साहित्य के महामात्य पर विवेचना करने से बेहतर है कि उसके बढ़ते -घटते प्रभाव पर चिंतन किया जाये। यूँ  तो हिंदी बोलचाल की भाषा के रूप में सर्वमान्य है। ,वही हिंदी और साहित्य एक दूसरे के पूरक है। जबकि आज जनमानस  में हिंदी को साहित्य की धरोहर के रूप में जाना जा रहा है.. सम्प्रेषण का सशक्त माध्यम होने के बावजूदबरसो पहले जयशंकर प्रसाद जी ने अपने अनुभव और दूरदर्शिता का परिचय देते हुए कहा था कि ,सिनेमा के आ जाने से सबसे ज्यादा नुकसान साहित्य को होंगा। आज यह बात सौ प्रतिशत सच साबित हो रही है। क्योकि सिनेमा ,टी वी ,ओर इंटरनेट ने साहित्य  को बुऱी  तरह से धर दबोचा है। कल तक साहित्य को समाज का दर्पण मानने वाले आज टी वी ,सिनेमा मे ही साहित्य खोज़ रहें है,इनसे उत्पन्न मानसिक  ,शारीरिक व्याधियाँ अपने दुश्प्रभाव से समाज को प्रभावित कर ही रही है। हर  जगह बाज़ारवाद फैला है। मनगढ़ंत कहानिया ,''सनसनी ''बन  जाती  है,. वही कविताओ या विचार विमर्श जैसे कार्यक्रमो मे अनुभूतियाँ गायब रहतीं है। 
            साहित्य हमेशा स्वप्रेरणा से लिखा जाता है। क्योकि लेखन अनुभूतियोंकी गहराईओं से उत्पन्न होता है। '' स्वजन हिताय -स्वजन सुखाय '' की भावना ही लेखन का मूल आधार है। शायद इसीलिए हमारे वरिष्ठ साहित्यकारों ने ''कालजयी''रचनाओ से साहित्य सागर भऱ दिया हैं। हा यह भी सच है कि उन्हें न तो  पारिश्रमिक क़ी चिंता रहती थी और न ही रायल्टी की। आज ऐसे समर्पित साहित्यकार विरले हीं  बचे हैँ  ,जिन्होने उंसी खुशबू को बचा ऱखा  हैं। बाकी  सब व्यवसायीकरण की शिकंजे में फंसते जा रहे है। 

ई .अर्चना नायडू 

Friday, September 23, 2016

सौंधी बिरयानी

''सौंधी बिरयानी ''

कभी -कभी ये जिंदगी ,
खाली -खाली बर्तन हुआ करती थी ,
बेवजह टकरा टकरा कर ,
शोर मचाया करती थी। 
मन की कढ़ाई में कलछुृरी संग ,
कई ख्वाब ,ख्वाइशों के तेल में 
पापड़ की तरह तल दिए जाते थे  
और तदबीरें खाक  हो जाती थी 
अब ,ऐ सनम !
तुम्हारे आ जाने से ,
हर्फो की अदावत से ,
अहसासों की तपिश पाकर  ,
वही खाली खाली बर्तन 
,भरने लगा है। 
ख्वाइशों की महक से, 
चाहतों का मीठा स्वाद ,
गुलज़ार होने लगा है !
अब तेरे मेरे दिल की आंच पर ,
अल्फ़ाज़ों के मसालों संग ,
कच्चे -पक्के  जज़्बातों की ,
मोहब्बत भरी ,
सौंधी सौंधी बिरयानी ,
फिर से पकने लगी है ,!

ई .अर्चना नायडू 

Tuesday, September 20, 2016

अतुल्य शक्तियां .......''''

अतुल्य शक्तियां .......''''

इस दुनिया में आने वाला हर इंसान अतुल्य शक्तियां और असाधारण प्रतिभा का असीमित भण्डार लिए हुए आता है .मगर अज्ञानतावश और परिस्थितिवश वह अपनी आंतरिक क्षमताओ को जान नहीं पाता. हम सभी जानते है , चौसठ कलाओ से निर्मित इस मानव शरीर में हजारो कलात्मक्ताये छुपी होती है जो हमारी क्रिया शीलता को शिथिल नहीं होने देती, और यही शक्ति हमारी आन्तरिक उर्जा बनकर हमें हर उम्र क पड़ाव पर सकारात्मक सोच के साथ उर्जावान बनाए रखती है .मानव जीवन सदेव ही संघर्षो का ताना बाना समेटे हुए होता है इसीलिए अपने आत्मविश्वास नाम की अनमोल पूंजी को हमेशा संभल कर रखना ज्यादा जरुरी है . सच्चे मन से और अथाह परिश्रम से किया गया हर कार्य हमेशा परिणिति को प्राप्त होता ही है इस बात की गांठ बांध लीजिये..... उम्र के हर मोड़ पर अपनी छोटी बड़ी उम्मीदों को सोलहवें साल की उमंगो की तरह सदा जवाँ रखकर आगे बढ़ते रहिये, देखिये ......फिर केसे अगले ही कदम में सफलता आपके स्वागत में पावडे बिछाये मिलेगी.दुनिया में कोई भी काम असाध्य नहीं है ,यह मानकर हमें अन्दर की उस विशेष प्रतिभा को तलाश कर तराशना होगा, जो अज्ञानता और आलस्यवश मन के किसी कोने में दुबकी पड़ी है, बस !!! अपनी रुचियों और दबी आकांशाओ की धूल हटा कर देखिये आपका छोटा सा प्रयास केसे बड़ी उपलब्धि बनकर असाध्य लक्ष्य को सिरमौर बाना लेता है, इस विलक्षण प्रतिभा को हम "पॉवर ऑफ़ एच " का नाम दे सकते है

पहला एच यानि  हमारा "हेड" या मस्तिष्क है जो हमारी बुद्धिमत्ता और चातुर्य का प्रथम केंद्र है जहा से योजनाओ की  प्रेरणा और उर्जा मिलती है और कार्य शीलता की शुरुआत  होती है. दूसरा एच अर्थात हमारा ह्रदय या "हार्ट" है जो शरीर के उलटे हाथ की तरफ रहता है लेकिन सही निर्णय लेता है इसलिए दिल  की पुकार को हमारा विवेक कहा जाता है और दिल से किया गया हर कार्य सम्पूर्णता को प्राप्त होता है. तीसरा एच हमारा हाथ  या "हैण्ड" है. दिल और दिमाग से किये गए हर काम को अपनी मंजिल तक पहुचने वाले सबसे सशक्त माध्यम हमारे ये दो हाथ ही है इन्ही तीनो शक्तियों को केन्द्रित करना ही एकमात्र उद्देश है.

अपनी प्राथमिकताओ को ध्यान में रखकर अपना छोटा या बड़ा लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए क्योकि जब लक्ष्य सामने हो तो उस राह पर चलना आसान होता है. छोटी बड़ी रूकावटे भी रrहो में आना जरुरी है  यही रोड़े हमारे आत्मविश्वास और दृढ निश्चय को परखते है .अपनी सकारात्मक सोच को हमेशा क्रिया शील रखने से हमारी  मानसिक, दैहिक और वैचारिक शिथिलता दूर होती है.
किसी भी कार्य के शुभारम्भ के लिए किसी मुहुर्त का मौका मत देखिये, क्योकि शुभ कार्य किसी शुभ घडी का मोहताज नहीं होता. एक शुभ विचार ही " एक शुभम " की शुरुवात है इसिलए, आइये ......अपने आत्म -मंथन के सागर से अपनी विशेष प्रतिभा के हीरे मोती निकालिए और मन कर्म के आन्तरिक उर्जा को एक नया आकार देकर एक अनोखा ऐसा कार्य कर डालिए, जिसका इंतज़ार हजारो ऑंखें कर रही है. इसी से आपकी प्रतिभा को एक नया नाम मिलेगा, नया आयाम मिलेगा और एक पहचान मिलेगी, आपका व्यक्तित्व और अस्तित्व सारे संसार के लिए एक मिसाल बन जाएगा ...........

प्रेषिका:
ई .अर्चना नायडू